१५ जनवरी, ११५८

 

 मां ''दिव्य जीवन'' का एक अनुच्छेद पढ़ती

हैं जिसमें भौतिकवादियोकी दलीलोंका विव-

रण है (''मनुष्य और क्रमविकास'' का

दसवां अनुच्छेद) ।

 

 यदि ये सब दलीलें सच होतीं और कोई उच्चतर सिद्धि न होती... तो करनेको कुछ रह ही न जाता । सौभाग्यवश यह सच नहीं है ।

 

       पर श्रीअरविन्दने अकसर कहा है कि उन्होंनें जो कुछ कहा है या भविष्य- वाणी की है उसकी सच्चाईका अकाटच प्रमाण तबतक नहीं मिलेगा जबतक वह ससिद्ध नही हो जाती; जब सब कुछ चरितार्थ हों जायगा तो जो माननेसे इंकार करते है वे लोग अपनी गलती पहचाननेको मजबूर हों जायंगे - पर शायद वे तबतक जीवित ही न रहें!

 

      अतः करनेको एक ही बात रह जाती है. विरोधों और नकारोंकी परवाह न करते हुए, अपनी श्रद्धा और बशपने निश्चयपर दृढ रहते हुए अपनी राह चलते चले। ।

 

     कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें सुरव-चैन और आरामसे रहनेके लिये दूसरोंके सहारे, विश्वास और निश्चितिकी जरूरत है -- ऐसे लोग सदा दुःखी रहते है, क्योंकि स्वभावतः: उन्हें ऐसे लोग मिचते रहेंगे जो विश्वास नहीं करते और इससे वे परेशान और पीड़ित होंगे । हर एकको अपनी निश्चिति अपने ही भरित खोजनी चाहिये, सब चीजोंके बावजूद इसे बनाये, संभालने रखना चाहिये और किसी भी किमतपर लक्ष्यतक बढ़ते जाना चाहिये । विजय अधिक-सें-अधिक सहिष्णुकी होती है ।

 

       सब विरोधोंके होते हुए अपनी सहन-शक्ति बनाये रखनेके लिये हमारे सहारेका आधार अचल-अटल होना चाहिये और एक ही सहारा अचल-अटल है, वह है 'सत्'का, 'परम सत्य'का सहारा ।

 

      किसी औरको खोजना बेकार है । केवल यही है जो कमी साथ कही छोड़ता ।

 

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